चोटी की पकड़–50

जमादार ने कहा, "हद हो गई।" खज़ाने के सिपाही की त्योरियाँ चढ़ीं। पर कुछ कहते न बना। मुन्ना ने कहा, "वह सिपाही ही था। उसकी भी तौहीन हुई। तुम भी कुछ कर चुके होगे। रानीजी कुछ नहीं, क्यों?"


"इधर जाओ" कहकर मुन्ना आगे बढ़ी। जमादार पीछे-पीछे चले। दूसरी मंजिल के सदरवाले जीने के पास मुन्ना ने जमादार से कहा, "घंटे भर बाद बगीचे में आओ। 

छिपे रहना। वह औरत इस मुसलमान के बच्चे से फँसी है। देख लो। साथ गवाह भी लेते आना इसी सिपाही को। 

खजाने का सदर फाटक बंद कर देना, यहाँ कौन है? लेकिन कुछ कहना मत। तुम नहानेवाली सीढ़ी की दीवार की बग़ल में छिपे रहना और अपने आदमी को उसी तरफ के आम के पेड़ पर चढ़ा देना। 

तुम पहले आना। उस आदमी को आधे घंटे बाद उतरने को कहना।"

मालखाने में आकर रुस्तम से कहा, "यहाँ तो कोई आता-जाता नहीं। यह जमादार इस औरत से फँसा है।

 यह नहाने जाएगी। नहाते वक्त मुझे भेज देगी। 

तभी दोनों अपना काम करेंगे। मैं तुझे भेजूँगी। लेकिन गवाह ले जाना तंबूवाले पहरेदार को। खिड़की के पास उसको छिपा देना। वह कुछ कहे नहीं। 

फैसला रानीजी करेंगी। वह गवाही देगा। जमादार लौटेगा तो वह देखेगा ही। खिड़की से आवाज दे देना, देख लिया।"

"बिना देखे?"

"अरे गधा बाद को तो देखेगा। निकलेगा कहाँ से? और राह नहीं।

तंबूवाले को समझा देना।"

तेरह

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